व्यवस्था बीच में आ गई कि अपराध बहुत हो, परन्तु जहाँ पाप बहुत हुआ वहाँ अनुग्रह उससे भी कहीं अधिक हुआ। तो क्या हुआ? क्या हम इसलिए पाप करें कि हम व्यवस्था की अधीन नहीं वरन् अनुग्रह के अधीन हैं? कदापि नहीं! क्या तुम नहीं जानते कि जिस की आज्ञा मानने के लिए तुम अपने आपको दासों के समान सौंप देते हो उसी के दास होः चाहे आप के, जिसका अन्त मृत्यु है, चाहे आज्ञाकारिता के, जिसका अन्त धार्मिकमा है? -रोमियों 5:20; 6:15-16
जब पौलुस ने अपने समय के लोगों को व्यवस्था और अनुग्रह सिखाना प्रारंभ किया-किस प्रकार से व्यवस्था ने पाप को उत्पन्न किया। परन्तु जहाँ पाप बहुत होता है तो अनुग्रह बहुत होता है-तो प्रारंभिक विश्वासी भ्रम में पड़ गए। उन्होंने तर्क किया, ‘‘तो क्या हुआ, क्या हम इसलिए पाप करें, कि हम व्यवस्था के अधीन नहीं वरन् अनुग्रह के अधीन है, कदापि नहीं!’’ (रोमियों 6:15)
इसलिए पौलुस को लिखना पड़ा, ‘‘परमेश्वर रोकिए! क्या तुम नहीं जानते कि जिसकी आज्ञा मानने के लिए तुम अपने आप को दासों के समान सौंप देते हो उसी के दास हो? चाहे पाप के, जिसका अंत मृत्यु है, चाहे आज्ञाकारिता के, जिसका अंत धार्मिकता है?’’ (रोमियों 6:16) जहाँ हम हैं वहाँ पर ठहरे रहने के लिए अनुग्रह एक बहाना नहीं है। यह दावा करते हुए कि हमें स्वयं या अपने जीवन से कुछ करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि हम व्यवस्था के अधीन नहीं परन्तु अनुग्रह के अधीन हैं। यही गलती थी जो प्रारंभिक विश्वासी कर रहे थे।
हाँ, परमेश्वर का अनुग्रह हमें दोषी ठहरने से बचाए रखेगा चाहे हम पाप करें भी। परमेश्वर का अनुग्रह हमारे नामों को जीवन की पुस्तक में बनाए रखता है चाहे यद्यपि हम सिद्ध न हों। परमेश्वर का अनुग्रह हमें बचाता है उसकी दृष्टि में हमें धर्मी ठहराता है, और उसकी आशीषें और स्वर्ग में एक घर का निश्चय दिलाता है, फिर जीवनभर हमें ले चलता है और हमें हृदय और मन की शांति देता और बहुत बहुत अन्य चीज़ें भी देता है।
परन्तु परमेश्वर का अनुग्रह इन सब से बढ़कर करता है। वह हमें उस प्रकार से जीना भी सिखाता है जैसा परमेश्वर चाहता है कि हम जिए-जो पवित्रता में है। यह न केवल हमें जीने की सामथ्र्य देता है परन्तु हमें पाप से बाहर निकलने के लिए भी दिया जाता है।