
और जो शारीरिक दशा में हैं, वे परमेश्वर को प्रसन्न नहीं कर सकते। परन्तु जब कि परमेश्वर की आत्मा तुम में बसती है, तो तुम
शारीरिक दशा में नहीं परन्तु आत्मिक दशा में हो। -रोमियों 8:8-9
भावना शब्द के बहुत सारे अर्थ हैं। वेबस्टर शब्दकोष के अनुसार इस शब्द का मूल शब्द लैटिन भाषा का इमोवेर है जिसका तात्पर्य है दूर जाना। यह परिभाषा मुझे बहुत रोचक लगी क्योंकि शारीरिक और ग़ैरक्रूसित भावनाएँ यही करने का प्रयास करती है – हमें परमेश्वर की इच्छा से बाहर या उससे दूर ले जाने का प्रयास करती हैं।
वास्तव में हमारे जीवन के लिए शैतान की यही योजना है-अपनी संसारिक भावनाओं के साथ जिए ताकि हम कभी आत्महीन न चलें। शब्दकोष यह भी कहता है कि भावनाएँ एक मिश्रण है, “सामान्यतः शक्तिशाली विषयात्मक प्रतिक्रिया। जिसमें भौतिक परिवर्तन कार्य के तैयारी के रूप में शामिल होता है,” यह सत्य है। अपनी जटिलता के कारण इन भावनाओं की व्याख्या करना आसान नहीं है जो कभी कभी उनके साथ व्यवहार करना भी कठिन बनाता है।
उदाहरण के लिए, ऐसे समय आते हैं जब पवित्र आत्मा हमें कुछ करने के लिए प्रेरित करती है और हमारी भावनाएँ उसमें शामिल होती हैं इसलिए हम उसे करने के लिए बहुत उत्तेजित हो जाते हैं। भावनात्मक समर्थन हमें यह महसूस करने में सहायता करता है कि परमेश्वर सचमुच में चाहता है कि हम ये काम करें। दूसरे समयों में प्रभु हमें कुछ निश्चित कार्य करने के लिए प्रेरित करेगा और हमारी भावनाएँ कुछ भी निःसंदर्भ में करना नहीं चाहेगी जो परमेश्वर हम पर प्रगट कर रहा है करने के लिए कह रहा है। वह कोई भी समर्थन नहीं देता है। उस समय में परमेश्वर की आज्ञा का पालन करना कठिन होता है।
हम भावनात्मक समर्थन पर बहुत अधिक आश्रित होते हैं। यदि हम अस्थिर और भावनात्मक स्वभाव की समझ नहीं रखते हैं तो शैतान उन्हें इस्तेमाल कर सकता है-या उनकी कमी हमें परमेश्वर की इच्छा से दूर रख सकती है। मैं दृढ़तापूर्वक विश्वास करती हूँ कि कोई भी व्यक्ति कभी परमेश्वर की इच्छा में नहीं चलेगा और अन्ततः विजय में नहीं चलेगा-यदि वह अपनी भावनाओं से परामर्श लेता है।