
पर अशुद्ध बकवाद (व्यर्थ, अनुपयोगी, निकम्मी) से बचा रह, क्योंकि ऐसे लोग और भी अभक्ति में बढ़ते जाएँगे। -2 तीमुथियुस 2:16
एक क्षेत्र जहाँ पर मुझे प्रभु के प्रति आज्ञा पालन को सीखना था, वह बोलने में है-या अधिक स्पष्ट कहूँ तो कब बोलना बंद करना है।
यदि आप मेरे समान बहुत बात करने वाले हैं, तो आप समझेंगे कि मैं क्यों कह रही हूँ कि पवित्र आत्मा-से-अभिषिक्त-आत्मा बातचीत करती है और व्यर्थ और अनुपयोगी और निकम्मी बात भी होती है-जिसके विषय में प्रेरित पौलुस ने जवान तीमुथियुस को लिखी अपनी पत्री में चेतावनी देता है जो उपरोक्त वचन में बताया गया है।
ऐसे समय थे जब हमारे घर में मेहमान होते थे और मैंने वे बातें कहना समाप्त किया जो प्रभु चाहता था कि मैं कहूँ, परन्तु उसके बाद भी लगातार बात करना जारी रखा। हम प्रायः उसी क्षण रुक सकते हैं जब हम उन बातों को कहना बंद कर देते हैं जिसके लिए परमेश्वर ने अभिषिक्त किया था – और अपने स्वयं की सामर्थ्य में उनको कहना जारी रखते हैं। उस बिंदु के बाद बिना कुछ कहे या उसी बात को बारम्बार दोहराते हुए मैं सोचती रही थी।
कभी कभी जब लोग हमारे घर से चले जाते हैं मैं परेशान हो जाती थी। यदि मैं परमेश्वर से बोलने से पहले ही दो घण्टा बात करना समाप्त करती थी तो मुझे थकित होने की ज़रूरत नहीं थी! मेरे लिए परमेश्वर की विशेष अपेक्षा वह कहना सीखना था जो वह चाहता था कि मैं कहूँ और तब रूक जाऊँ।
क्या आप कभी किसी सरल विषय पर किसी से बात करते रहे हों और बातचीत में अचानक ही गरमी आ जाती है? आप कह सकते हैं कि भावनाएँ नियन्त्रण से बाहर जा रही है और आपके भीतर से आवाज़ आती है, जो कहती है, “यह काफ़ी है, अब और अधिक मत बोलो।” यह तत्परता यद्यपि छोटी सी बात है परन्तु बहुत मजबूत है और आप जानते हैं कि और एक बात कहना बुद्धिमानी नहीं होगी। परन्तु एक क्षण सोचने के पश्चात् आप दीन होकर उसमें कूद पड़ने का निर्णय लेते हैं! कुछ ही क्षणों के पश्चात् आप एक युद्ध में होते हैं! उसी क्षण आत्मा कहती है, “इतना काफ़ी है” हमें रुकने ही ज़रूरत है। यदि हम लगातार जारी रहेंगे, तो हम कुण्ठा और पराजीत हो जाएँगे।