परन्तु जब हम सबके उघाडे़ चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस
प्रकार (परमेश्वर के वचन में) दर्पण में तो प्रभु के द्वारा (आता है) जो आत्मा है हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश करके बदलते जाते हैं। -2 कुरिन्थियों 3:18
आज प्रभु के साथ व्यक्तिगत समय बिताने पर अधिक ज़ोर है और यह सही भी है। जैसा कि वह बहुत से लोग शिक्षा में इस बात को जोर देने से तनावग्रस्त भी हैं। वे परमेश्वर के साथ समय व्यतीत करना चाहते हैं परन्तु असुविधाजनक महसूस करते हैं। कुछ व्यक्त करते हैं कि ये कभी भी परमेश्वर की उपस्थिती को महसूस नहीं करते या वे नहीं जानते कि उस समय क्या करना चाहिए। हमें अवश्य ही “होना” सीखना है न कि हमेशा महसूस करना कि “करना” चाहिए।
उपरोक्त पद में हम पढ़ते हैं हमें बेपर्दा चेहरे के साथ आना चाहिए ताकि उस लाभ को प्राप्त करें जो परमेश्वर चाहता है कि हम नई वाचा से प्राप्त करें। मेरे लिए इसका तात्पर्य है कि जब मैं धार्मिक होना और लकीर पर चलना बंद कर देती हूँ और यीशु के पास आती हूँ जहाँ मैं “अपने” सारे कार्यों को एक तरफ़ रख देती हूँ और उसे देखना प्रारंभ कर देती हूँ। जब मैं उसे मेरी आँखों का पर्दा हटाने देती हूँ तब मैं और वह एक व्यक्तिगत संबंध में प्रवेश कर सकते हैं जो मुझे अन्ततः उसके स्वरूप में बदल देगी। किसी और चीज़ से बढ़कर मुझे उसकी उपस्थिती की आवश्यकता है। वही एक मात्र है जो मेरे लिए कुछ भी ऐसा कर सकता है जो स्थायी हो।