
(वह वही है) जिसने हमें (मसीह के द्वारा उद्धार की) नई वाचा के सेवक होने के योग्य भी किया। शब्द (कानूनी रूप से लिखित) के (सेवक) नहीं वरन् आत्मा के क्योंकि (व्यवस्था के) शब्द मारता है पर (पवित्र आत्मा) आत्मा जिलाता है। -2 कुरिन्थियों 3:6
कभी कभी मैं महसूस करती हूँ कि धर्म लोगों को मार रहा है। बहुत से मूल्यवान लोग हैं जो परमेश्वर से संबंध की खोज कर रहे हैं और धार्मिक समुदाय उनसे लगातार यह कहता रहता है कि उन्हें कुछ और “करने” की ज़रूरत है कि वे परमेश्वर के लिए स्वीकारयोग्य हों।
यीशु ने पिता के साथ अपने व्यक्तिगत संबंध के बारे में बताया और उसके दिनों के धार्मिक अगुवों ने उसे सताया। यह बात मुझे अश्चर्यचकित करती है कि कैसे कुछ लोग किसी भी ऐसे लोगों के विरूद्ध आना चाहते हैं जो परमेश्वर के विषय में एक व्यक्तिगत रूप से बात करते हैं या जो सोचते हैं कि उनके पास परमेश्वर से कोई सामर्थ्य है। यह प्रगट है कि शैतान परमेश्वर के साथ हमारे व्यक्तिगत संबंध से घृणा करता है और वह सामर्थ्य जो वह हमारे जीवनों में उपलब्ध कराता है।
कुछ निश्चित धार्मिक समूहों में यदि मैं और आप परमेश्वर के विषय में बातें करते हैं कि मानो हम उसे जानते हैं तो हमारी आलोचना होगी और न्याय किया जाएगा। लोग पूछेंगे कि, “तुम क्या सोचते हो, कि तुम हो?” धर्म चाहता है कि हम परमेश्वर को एक दूर-बैठे हुए व्यक्ति के रूप में चित्रित करें। कहीं दूर-आकाश में, कलीसिया के कुलिनों के अलावा हर किसी के पहुँच से दूर। और वे चाहते हैं कि हम विश्वास करें कि वह केवल नियमों के मानने और अच्छे व्यवहार के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है। यह “धार्मिक आत्मा” यीशु के दिनों में भी जीवित थी। और यद्यपि वह मेरा और उसके साथ एक निकट संबंध में लोगों को लाया। अपनी पवित्र आत्मा और पिता के साथ व्यक्तिगत संबंध में निकट में लाया। वही आत्मा अभी भी लोगों को इन दिनों में यातना देती है-यदि वे सत्य को नहीं जानते हैं।
धर्म कहता है, “हमें एक मार्ग ढूँढ़ना है चाहे वह कितना भी कठिन दिखे। ये करते हैं तो आपका भला। नियमों का पालन करो या दण्ड भोगो।” परन्तु संबंध कहता है, “अपना श्रेष्ठ करो, क्योंकि तुम मुझ से प्रेम करते हो। मैं तुम्हारे हृदय को जानता हूँ। अपनी गलतियों को मानो, अपनी गलतियों से पश्चाताप् करो, और मुझ से प्रेम करते रहो।”