हमारे परमेश्वर यहोवा ने होरेब के पास हम से कहा था, ‘तुम लोगों को इस पहाड़ के पास रहते हुए बहुत दिन हो गए हैं; इसलिये अब यहाँ से कूच करो, और एमोरियों…………..सुनो मैं उस देश को तुम्हारे सामने किए देता हूँ, जिस देश के विषय यहोवा ने अब्राहम इसहाक और याकूब और तुम्हारे पितरों से शपथ खाकर कहा था कि मैं इसे तुमको और तुम्हारे वंश को दूँगा। उसको अब जाकर अपने अधिकर में कर लो।
– व्यवस्थाविवरण 1:6-8
हम में से जो माता पिता हैं, वे इन शब्दों को भली भांती जानते हैं। ‘‘एक मिनट, थोड़ी देर बाद।’’ हम अपने बच्चों को खेल खत्म करके घर में आने के लिये कहते हैं। परन्तु वे थोड़ी देर और अपने मित्रों के साथ खेलना चाहते हैं। अभी वे अपने खेल से सन्तुष्ट हैं और अपनी साफ सफाई तथा खाने के बारे में नहीं सोचना चाहते हैं। यदि हम उन्हें अनुमति देंगे तो यह हमेशा, ‘‘बस थोड़ी देर में,” चलता ही रहेगा। कभी कभी हम बड़े भी बच्चों के समान कहते हैं, बस थोड़ी देर में।
मैं ऐसी दुखदायी जीवन जीनेवाले लोगों से मिली हूँ, जो अपनी ज़िन्दगी को पसन्द नहीं करते। अपनी नौकरी से घृणा करते हैं। या फिर गलत तरह के लोगों के साथ असहनीय संबंध रखते हैं। वे अपनी दुर्दशा को जानते थे। लेकिन उसके विषय में उन्होंने कुछ नहीं किया। ‘‘बस थोड़ा देर और।’’ यह थोड़ी देर और किस लिए? अधिक कष्ट पाने के लिये? या और अधिक निरूत्साहित होने के लिए? और अधिक अप्रसन्नता के लिये?
यह ऐसे लोग हैं, जिनके पास मेरे शब्दों में मरूभूमि की मानसिकता है। मैं इसकी व्याख्या करना चाहूँगी। मूसा ने इस्राएलियों की अगुवाई की, कि वे बाहर निकलें। यदि उन्होंने परमेश्वर की आज्ञा का पालन किया होता, कुड़कुड़ाए न होते, और जैसे परमेश्वर ने कहा था, वैसे ही आगे बढ़ते, तो उनकी यह यात्रा 11 दिनों में ही समाप्त हो जाती। किन्तु इस यात्रा में उन्हें 40 वर्ष लगे।
अन्ततः उन्होंने क्यों छोड़ा? केवल इसलिये कि परमेश्वर ने कहा, ‘‘तुम बहुत समय तक इस पहाड़ पर ठहर चुके हो।’’ यदि परमेश्वर ने उन्हें प्रतिज्ञा देश की ओर धक्का नहीं दिया होता, तो पता नहीं कितने समय तक वे वहीं रूके रहते और यरदन नदी भी पार नहीं कर पाते।
वे लोग मिस्र में गुलाम थे। यद्यपि उन्होंने मिश्र में आश्चर्यकर्मों को देखा था और लाल सागर में मिस्र सेना की हार को देखकर परमेश्वर की स्तुति की थी परन्तु वे अब भी गुलामी में थे। उनके शरीरों पर गुलामी की ज़ंजीरे नहीं थी, लेकिन उन्होंने कभी भी उन ज़ंजीरों को अपने मन से नहीं हटाया था। इसी को मरूभूमि की मानसिकता कहते हैं।
चालीस वर्षों तक वे कुड़कुड़ाते रहे। उनके पास पानी नहीं था, और परमेश्वर ने उनके लिये पानी का प्रबन्ध किया। वे भोजन के लिये कुड़कुड़ाए। मन्ना उनके लिये ठीक था, परन्तु उन्हें किसी प्रकार का माँस चाहिये था। परिस्थिति चाहे कुछ भी हो, वे अभी भी मानसिक कैदी थे। जैसे वे मिस्र में थे, वैसे ही वे मरूभूमि में भी थे। चीज़ें कितनी भी अच्छी हों, वे अच्छी नहीं थे। उन्होंने मिस्र की सारी कठिनाईयों और गुलामी को भुला दिया था। और हमेशा मूसा के नेतृत्व से असन्तुष्ट रहते थे और चिल्लाते थे, ‘‘काश की हम मिश्र में ही रह जाते।”
वे भूल गए थे कि वहाँ पर उनका कितना बुरा हाल था। उनके पास दर्शन नहीं था कि परिस्थितियाँ कितनी अच्छी हो सकती है। जब उनके पास नई भूमि में जाने का अवसर आया तो वे डर गए। वे चिल्लाए, ‘‘वहाँ पर राक्षस रहते हैं।’’ इसके पूर्व उन्होंने परमेश्वर के छुटकारे को देखा था। लेकिन अब वर्तमान में वे उसके लिये तैयार नहीं थे।
अन्ततः परमेश्वर ने कहा, ‘‘ठीक है, अब आगे बढ़ने का समय आ गया है।’’ बाइबल हमें उनके स्वभाव के बारे में नहीं बताती, परन्तु उनके स्वभाव के बदलने का कोई कारण भी नज़र नहीं आता। मैं अनुमान लगा सकती हूँ कि वे चिल्लाए होंगे, ‘‘थोड़ी देर और रूक जाते हैं। यहाँ पर भी परिस्थितियाँ अच्छी नहीं है परन्तु यहाँ पर रहना हमें आता है। हम इस जगह को छोड़ने में डर लगता हैं। हम इसके आदी हो गए हैं।’’
यदि आप अपने जीवन को नहीं चाहते हैं, किन्तु उसे परिवर्तित करने का प्रयास भी नहीं करते, तो आप मरूभूमि की मानसिकता वाले हो सकते हैं। यदि आपका मन नकारात्मक विचारों से भरा हुआ हैं, तो वे आपको गुलामी में रखेंगे।
फिर भी आप इसके बारे में और कुछ कर सकते हैं। आप को और समय बर्बाद करने की आवश्यकता नहीं हैं। आप यह कह सकते हैं, ‘‘मैं इस पर्वत पर बहुत रह चुकी हूँ। अब मैं प्रतिज्ञा देश की ओर जा रहा हूँ, ऐसा देश जहाँ पर मैं विजयी जीवन जीउँगी और शैतान की योजनाओं को हरा दूँ।
प्रार्थना, ‘‘महान प्रभु परमेश्वर मरूभूमि की मानसिकता दूर करने में मेरी सहायता करे। प्रतिज्ञा देश की मानसिकता पाने में मेरी सहायता करें और विजयी हो कर जीने के लिये मेरी सहायता करे। यीशु मसीह की नाम से। आमीन।।’’