“नाशवान भोजन (उपयोग में लाने) के लिए परिश्रम न करो, परन्तु उस (शाश्वत) भोजन के लिए जो अन्नत जीवन तक (लगातार) ठहरता है, जिसे मनुष्य का पुत्र तुम्हें देगा; क्योंकि पिता अर्थात परमेश्वर ने उसी पर छाप लगाई है।” उन्होंने उससे कहा, “परमेश्वर के कार्य करने के लिए हम क्या करें?” (परमेश्वर की अपेक्षाओं को पूरा करने के लिए क्या करें)? यीशु ने उन्हें उत्तर दिया, “परमेश्वर का कार्य (सेवा) यह है कि तुम उस पर, जिसे उसने भेजा है, विश्वास करो।” -यूहन्ना 6:27-29
मैं आपको बता नहीं सकती कि कितनी बार मैंने प्रभु से कहा है, “पिता, तू क्या चाहता है कि मैं करूँ? यदि तू मुझे दिखाएगा तो मैं उसे करूँगी।”
मैं यह करनेवाली थी। कि सिर्फ़ यह करना था कि यह मुझे दिखाए, कि क्या करने की ज़रूरत थी और मैं उसे सही रीति से करती थी। परन्तु जिस बात ने मुझे निराश और भ्रमित किया वह थी कि जब मैं कोई सही काम करती थी तब भी उसका कोई प्रयोजन नहीं होता था।
“परमेश्वर के कार्यों को करने के लिए हमें क्या करना चाहिए?” वे लोग जानना चाहते थे। किसी ने भी उनसे नहीं कहा था कि परमेश्वर के कार्यों को करें, यह उनका विचार था। परमेश्वर इतना महान है कि वह अपना कार्य स्वयं कर सके। हम इसी प्रकार हैं। हम परमेश्वर के सामर्थी कार्यों के विषय में सुनते हैं, और तुरन्त ही हमारी प्रतिक्रिया होती है, “प्रभु मुझे केवल यह दिखा कि उन कार्यों को करने के लिए मुझे क्या करना चाहिए।” उन लोगों के लिए यीशु का उत्तर क्या था? “यही कार्य है जो परमेश्वर आपसे चाहता है कि आप विश्वास करें।”
अब जबकि परमेश्वर ने इस भाग को मुझ पर प्रगट किया, तो मैंने सोचा कि परमेश्वर मुझ को वह दिखाना चाह रहा है, कि मुझे अन्ततः उन कार्यो को करने के लिए सफ़ल होने में क्या करना चाहिए। और एक प्रकार से उसने ऐसा किया, उसने कहा, “विश्वास करो।”
“क्या आपका मतलब यही है?” मैंने पूछा।
उसने कहा, “हाँ,” “यही है।”
मैं और आप सोचते हैं कि हमें श्रेष्ठ उपलब्धी वाले बनना है, और हम हैं। परन्तु जिस तरीके से हमें यह हासिल करना है वह विश्वास करना है।