तब बड़ी आँधी (चक्रवात की हवा) आई, और लहरें नाव पर यहाँ तक लगीं कि वह पानी से भरी जाती थी। पर वह (आप) पिछले भाग में गद्दी पर सो रहा था। तब उन्होंने उसे जगाकर उससे कहा, “हे गुरू, क्या तुझे चिंता नहीं कि हम नष्ट हुए जाते हैं?” -मरकुस 4:37-38
शिष्यगण मध्य में शायद इतने अधिक उत्तेजित नहीं थे जितने वे प्रारंभ में थे। यद्यपि परमेश्वर हमें अक्सर एक नई मंजिल की ओर चलने के लिए बुलाता है। वह प्रायः हमें यह नहीं जानने देता कि इसके मार्ग पर क्या होने जा रहा है। हम जहाँ हैं वहाँ की सुरक्षा छोड़ देते हैं और दूसरे भाग की आशीष के लिए हम निकल पड़ते हैं। परन्तु अक्सर बीच का स्थान होता है जहाँ पर हम आँधी का सामना करते हैं, मध्य का भाग अक्सर एक परीक्षा का भाग होता है। आँधी पूरे वेग के साथ आती है और यीशु सो रहा था! क्या यह परिचित लगता है?
क्या आपके साथ ऐसा समय आया कि आपने महसूस किया कि आप बहुत तेज़ी से डूब रहे हैं और यीशु सो रहा था? आपने प्रार्थना किया और प्रार्थना किया और परमेश्वर से कुछ नहीं सुना? आपने उसके साथ समय व्यतीत किया और उसकी उपस्थिती का अनुभव करने का प्रयास किया और फिर भी आपने कुछ भी महसूस नहीं किया? आपने एक उत्तर की खोज की, परन्तु चाहे हवा और लहरों के विरूद्ध आपने कितना भी कठोर संघर्ष किया आँधी प्रबल होती गई और आपने नहीं जाना कि इस विषय में क्या करना चाहिए।
जिस आँधी को शिष्यों ने अपने आपको सामना करते हुए पाया वह अप्रैल की छोटी सी हवा नहीं थी परन्तु समुद्री चक्रवात के समान था। लहरें सामान्य रूप से नहीं चल रहीं थी परन्तु वे नाव को बड़ी तेज़ी के साथ उछाल रही थी कि वह पानी से भर गया था। ऐसे समय आते हैं जब कि हममें भीतर ही कहीं नाव डूब रही हो। उस समय हमें अवश्य ही अपने विश्वास का “इस्तेमाल” करना चाहिए। हम विश्वास के बारे में बात कर सकते हैं, इसके विषय में किताबें पढ़ सकते हैं, इसके विषय में संदेश सुन सकते हैं, इसके विषय मे गीत गाते हैं परन्तु आँधी के समय हमें इसका इस्तेमाल करना चाहिए। यही समय होते हैं जहाँ पर हम यह भी खोजते हैं कि हमारे पास कितना विश्वास है।