(संतुलित मन रखो) सचेत हो और जागते रहो; क्योंकि तुम्हारा विरोधी शैतान गर्जनेवाले सिंह के समान इस खोज में रहता है कि किस को फाड़ खाए। -1 पतरस 5:8
मुझे स्मरण आता है जब मैं अपने घर में बैठी स्ट्रंग अनुक्रमाणिका में सज्जन शब्द को ढूँढ़ रही थी और कह रही थी, “प्रभु, आपको मेरी सहायता करनी है!” मैंने सोचा कि मैं कभी भी सज्जन नहीं बन सकती। अन्ततः प्रभु सज्जनता के क्षेत्र में मेरे जीवन में कार्य करना प्रारंभ किया। एक मात्र समस्या यह थी कि मसीह के देह में अन्य बहुत से लोगों के समान मैं एक ऐसी अतिवादी थी कि मैं एक “खुशनुमा माध्यम” नहीं खोज पाती थी। एक बार मैंने देखा कि एक क्षेत्र में मैं अति सन्तुलित हो गई थी कि मैंने सोचा कि मुझे पूरी रीति से दूसरी दिशा में जाना चाहिए। मैंने बहुत अधिक “सामान्जस्य” बिठा लिया था और “स्वीकार कर” लिया था। मैं बहुत अधिक “सज्जन” और “दयालु” और “धैर्यवान” बन गई थी कि मैं अपने छोटे बेटे पर किसी भी प्रकार का अनुशासन नहीं बना पा रही थी, जो तब पैदा हुआ था जब मेरे अन्य बच्चे बड़े हो चुके थे। मैं दूसरों के साथ अपने संबंध में भी अधिक सज्जन हो गई थी। मैं अपने विवाह में, घर में, सेवकाई में बातों को मेरे पकड़ से जाने देती थी। मैंने अपने अनुभव से सिखा कि अतिवादी होना भी अन्य बातों के समान बुरा है। इन सब में हमें जो सीखना है वह सन्तुलन है।
एक तरफ़ हमें कठोर और कठिन नहीं होना चाहिए परन्तु दूसरी तरफ़ हमें कमज़ोर और अत्यधिक मुलायम नहीं होना चाहिए। हमें परेशान करनेवाले और अधैर्यवान नहीं होना चाहिए जो भावना में बहकर कार्य करते हैं। दूसरी तरफ़ हमें इतना अधिक कोमल नहीं होना चाहिए कि हम उन लोगों के लिए चटाई बन जाए या पैरदान बन जाए जो हमारा लाभ उठाते हैं यदि हम उन्हें एक मौका देते हैं। धैर्यवान होने और सहने का एक समय है और दृढ़ और निर्णात्मक होने का भी एक समय है। “क्रोधित न होने” का भी एक समय है और धार्मिक रोस दिखाने का भी एक समय है। यह जानना बुद्धिमानी है कि कब क्या करना है।