
अतः हे दोष लगानेवाले, तू कोई क्यों न हो, तू निरूत्तर है; क्योंकि जिस बात में तू दूसरे पर दोष लगाता है उसी बात में अपने आप को भी दोषी ठहराता है, इसलिए कि तू जो दोष लगाता है स्वयं ही वह काम करता है (जिस बात पर तुम आरोप लगाते हो)। -रोमियों 2:1
दूसरे शब्दों में उसी तरह जैसे हम दूसरों का न्याय करते हैं, हम स्वयं का भी न्याय करते हैं। परमेश्वर ने मुझे एक बहुत अच्छा उदाहरण एक बार इस सिद्धान्त को समझने में मेरी सहायता करने के लिए दिया। मैं खोज रही थी कि हम क्यों स्वयं कुछ करते और सोचते हैं कि वह पूर्ण रीति से सही होगा। परन्तु जब कोई दूसरा उसे करता है तो उसका न्याय करते हैं। उसने कहा, ‘‘जॉयस, तुम स्वयं को गुलाबी रंग के चश्मे से देखते हो, परन्तु अन्य हर किसी को लेन्स के चश्में से देखते हो।”
हम अपने व्यवहार के लिए बहाने बनाते हैं, परन्तु जो कोई और उसी तरह का व्यवहार करते हैं जैसा हम करते हैं, हम अधिकांशतः निर्दयी हो जाते हैं। लोगों के साथ वैसा ही व्यवहार करना जैसा हम निश्चय ही अपने साथ चाहते हैं (मत्ती 7:12 देखिए)। जीवन का एक अच्छा सिद्धान्त है जो हमें बहुत सारी आलोचनाएँ और न्याय करने से रोकेंगी, यदि हम इस सिद्धान्त का पालन करते हैं। एक दोषी ठहरानेवाला मन, एक आलोचना करनेवाला मन, एक नकारात्मक मन का परिणाम होता है। किसी व्यक्ति के विषय में क्या सही है यह सोचने के बजाए क्या खराब है या क्या गलत है यह सोचना। सकारात्मक बनो नकारात्मक नहीं! दूसरों को लाभ होगा परन्तु किसी से भी बढ़कर आपको लाभ होगा।