धीरे धीरे

धीरे धीरे

तेरा परमेश्वर यहोवा उन जातियों को तेरे आगे से धीरे धीरे निकाल देगा; तो तू एकदम से उनका अंत न कर सकेगा, नहीं तो बनैले पशु बढ़कर तेरी हानि करेंगें।

व्यवस्थाविवरण 7:22

हाल ही में मैंने अपने जीवन के बारे मैं सोचा तब से जब मैं गम्भीरता पूर्वक यीशु के पीछे चलने लगी थी, और अब तक यदि में उस समय अपने यात्रा के आरम्भ में, उन सारी विषयों में जान गयी होती, जिसमें से परमेश्वर मुझे लेकर जाते, तो मैं अपनी यात्रा प्रारंभ करने से डरती।

जब मैं पीछे मूड़ कर देखती हूँ, तो पाती हूँ कि परमेश्वर ने मेरे हाथ को थाम रखा था, और मुझे छोटे छोटे कदम बढ़ाने दे रहा था। मेरे जीवन में बहुत अधिक निराशा के कई समय आएँ जैसे हम सबके जीवन में आते है। मेरे व्यक्तिगत पराजय के कारण बिताए गए कठिन अनुभवों को मैं याद करती हूँ। किन्तु परमेश्वर मुझे आगे बढ़ाता रहा।

विजयी मसीही जीवन जीने का यही रहस्य है। हम धीरे धीरे करके आगे बढ़ते हैं। कई महीनों और सालों में कुछ इन्च बढ़ना है। हम मे से अधिकतर लोग यह बात समझते हैं। मन के युद्ध में भी यही बात लागू होती हैं। हम शैतान को एक बड़ी मार से हराकर हमेशा के लिए विजयी जीवन नहीं जीने लगते हैं। हम एक छोटा सा युद्ध जीततें हैं और तब हम अगले के लिये तैयार होते हैं। हो सकता है कुछ महान

विजय अचानक ही आ जाए, लेकिन बहुत सारी नहीं। शैतान के दृढ़ गढो को नाश करने का युद्ध प्रति दिन और धीरे धीर करके आगे बढ़ने से होता है।

जब पहली बार मैंने इस तथ्य के बारे में सोचा, यह निरूत्साहित करनेवाला था, तब तक जब मैंने परमेश्वर की बुद्धि कों न समझा। जब यहूदी मिश्र को छोड़ मरूभूमि में भटक रहे थे, तो प्रतिज्ञा देश में जाने से पहले परमेश्वर ने उनसे बाते की। यह एक विशेष, उपजाऊ, सुन्दर और उनके लिये प्रतिज्ञा की हुई भूमि थी। लेकिन उन 400 वर्षों में जब से याकूब और उसके पुत्रों ने उस भूमि को छोड़ दिया था, अन्य लोगों ने आकर उस भूमि पर कब्जा कर लिया था।

इस्राएल की सन्तानों के लिये यह केवल वहाँ जाने और बस जाने का सवाल नहीं था। उन्हें उस भूमि के हर इन्च पर कबजा करने के लिये लड़ना था। यद्यपि वह उनकी विरासत थी।

इसी प्रकार आत्मिक सिद्धान्त भी हर स्तर पर काम करते है। परमेश्वर की आशीषें हमारा इन्तज़ार कर रही हैं, लेकिन यह हमारे ऊपर है कि हम जाऐं और उसे अधिकार में कर लें। ठीक उसी प्रकार जैसे यहूदियों के लिये था-यह एक युद्ध है।

इस अध्याय के आरम्भ में लिखे पद में परमेश्वर ने खेत पशुओं के बारे में बात की, उस भूमि में बहुत सारे जानवर थे जो खतरनाक हो सकते थे। यदि हम इन पशुओं की तुलना घमण्ड से करें तो कैसा होगा? क्या होगा यदि परमेश्वर अचानक हमें एक सम्पूर्ण विजय दे दे, और फिर हमें कभी संघर्ष न करना पड़े? तो यह हम पर कैसा असर करेगा? निश्चय ही हमारे भीतर घमण्ड आ जाऐगा।

तब हमारा नजरिया दूसरों के प्रति उन्हें नीचा देखने का होगा, जिन्हें हमारे समान विजय नहीं मिली है। हम अपने इस सोच को शब्दों में व्यक्त भले ही न करें, परन्तु जिन्हें हम नीचा दिखाते है वह नहीं महसूस करेंगे, की हम अपने आपको बहुत श्रेष्ठ समझते हैं। और सच में क्या हम अपने आपको श्रेष्ठ नाहीं समझते हैं। हमने ऐसा किया हैः और वो गरीब लोग अभी भी संघर्ष कर रहे हैं।

परमेश्वर ने हम सब के लिये अद्भूत योजनाएँ रखी है। लेकिन यह कभी भी एक महान विजय के साथ नहीं आती है, कि हम फिर कभी संघर्ष न करें। बल्कि यह निरन्तर चलनेवाला युद्ध है और हमें लगातार सतर्क रहना है और शत्रु के आक्रमण के प्रति जागरूक होना है।

दूसरा पहलू, यह है कि जब हम थोड़ा थोड़ा करके आगे बढ़ते हैं, तो हम प्रत्येक विजय का पूर्ण स्वाद लेते है। प्रत्येक बार जब हम शैतान के दृढ़ गढ़ पर विजय पाते हैं या उसे नाश करते हैं, तब हम आनन्दित होते हैं। हम लगातार धन्यवादी बने रहते हैं। यदि हमारे पास केवल एक ही विजय होती, और वह भी तीस साल पहले, तो हमारा जीवन कितना उबाऊ होता और हमारे लिये यह कितना आसान होता कि हम परमेश्वर को हल्के में ले लेते। क्या एक ऐसे परमेश्वर की सेवा करना भला नहीं है, जो हमें हमेशा धीरे धीरे आगे बढ़ाता है, और हमे हमेशा रास्ता दिखाता है, और हमें उत्साहित करता है। हम हमेशा नएँ क्षितिज को पहुँचते हैं और परमेश्वर के साथ अपने यात्रा को रोमान्चित बनाते हैं।

प्रार्थना, ‘‘परमेश्वर, सारी विजय तुरन्त पाने की मेरी इच्छा को क्षमा करें। यह समझने में मेरी सहायता करें कि जब मैं संघर्ष करती हूँ, और आपको पुकारती हूँ। मैं आपके अद्भुत प्रेमी और संभालने वाले हाथ को देखूँ, जो मुझे थोड़ा थोड़ा करके आगे बढ़ाता है। इसके लिये मैं बहुत धन्यवादी हूँ। आमीन।’’

 

 

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