क्योंकि यदि कोई परमेश्वर का विचार करके अन्याय से दुःख उठाता हुआ क्लेश सहता है तो यह सुहावना (स्वीकारयोग्य, धन्यवाद के योग्य) है। क्योंकि यदि तुम ने अपराध करके घूँसे खाए और धीरज धरा, तो (अंततः) इस में क्या बड़ाई की बात है? पर यदि भला काम करके दुःख उठाते हो और धीरज धरते हो, तो यह परमेश्वर को भाता है। -1 पतरस 2:19-20
यदि मैं और आप इस पद से वह पाना चाहते हैं जो परमेश्वर चाहता है कि हमारे पास हो तब हमें उसे धीरे पढ़ना और प्रत्येक वाक्यांश और वाक्य को अच्छी रीति से पहचानना है। मैं स्वीकार करूँगी कि मैंने इसे स्वीकार करने के लिए बर्षों तक यत्न किया कि मुझे दुःख भोगते हुए देखकर परमेश्वर क्यों प्रसन्न होता है जबकि बाइबल स्पष्ट रीति से कहती है कि यीशु मेरे दुःखों को अपने ऊपर दण्ड के दर्द को उठा लिया। (यशायाह 53:3-6 देखिए) यह कुछ वर्षो पूर्व मुझे इस बात का एहसास हुआ कि इन वचनों का केन्द्रीय बिन्दु जो 1 पतरस में बताया गया है कि यह महत्वपूर्ण नहीं है कि आप कितना दुख उठा रहे है परन्तु यह है कि आप दुख के मध्य में कैसा स्वभाव रखते है। “धीरजवन्त” शब्द पर ध्यान दें जो इस भाग में इस्तेमाल किया गया है जो कहता है कि कोई यदि हमारे साथ गलत व्यवहार करता है और हम धैर्यपूर्वक उस समय व्यवहार करते हैं यह परमेश्वर को प्रसन्न करता है। दुःख में हमें उत्साहित करने के लिए हमें प्रोत्साहित किया जाता है कि यीशु की ओर देखें की किस प्रकार वह अपने ऊपर वह अन्याय को सह लिया। परमेश्वर को जो बात प्रसन्न करती है वह हमारी तकलीफ़ नहीं परन्तु हमारा धैर्यवान स्वभाव है।