अब मैं क्या मनुष्यों को मनाता हूँ या परमेश्वर को? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूँ? यदि मैं अब तक मनुष्यों को ही प्रसन्न करता रहता तो मसीह का दास न होता। -गलातियों 1:10
प्रेरित पौलुस ने कहा कि अपनी सेवकाई में उन्हें मनुष्यों को प्रसन्न करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने के बीच में चुनाव करना पड़ा था। यह एक ऐसा चुनाव है जो हममें से प्रत्येक को अवश्य करना चाहिए। फिलिप्पियों 2:7 में हम पढ़ते हैं कि यीशु ने अपने आप को “शून्य कर दिया।” हमारे प्रभु ने अपने लिए यश का निर्माण नहीं किया न ही हमें करना चाहिए।
प्रभु ने एक बार मुझे आदेश दिया, “मेरे लोगों से कहो, कि अपने लिए यश कमाना बन्द कर दें और मुझे उनके लिए यह करने दें।” यदि हमारा लक्ष्य अपने लिए एक नाम का निर्माण करना है तो यह परमेश्वर के भय की तुलना में मनुष्य के भय में जीने के कारण बनेगा। हम परमेश्वर के अनुग्रह की तुलना में लोगों के अनुग्रह को पाने का प्रयास करेंगे।
अस्वीकार किए जाने के भय से बढ़कर शैतान किसी और हथियार का इस्तेमाल नहीं करता है कि लोगों को परमेश्वर की इच्छा से बाहर रखे। मेरी अपनी स्थिति में जब मैंने अपने जीवन के लिए परमेश्वर की इच्छा का अनुकरण करने का पूर्ण समर्पण किया। मेरे बहुत से पुराने मित्रों ने मुझ से नाता तोड़ लिया और कुछ तो मेरे विरोध में हो गए। पौलुस के समान मैंने यह भी सिखा कि लोगों को प्रसन्न करने और परमेश्वर को प्रसन्न करने के बीच में चुनाव करना था। यदि मैं लोगों के साथ प्रसिद्ध होने का चुनाव करती तो मैं सेवकाई के उस स्थान पर नहीं खड़ी होती जहाँ पर मैं आज खड़ी हूँ।
आज मैं और आप एक निर्णय का सामना कर रहे हैं। हम स्वयं का, अपनी सेवकाई का और अपऩी प्रतिष्ठा का निर्माण करने का प्रयास करने जा रहे हैं या अपने सभी मानवीय प्रयासों को छोड़ने के इच्छुक या और परमेश्वर पर सरल भरोसा रख रहे हैं?