जब वह यरूशलेम में फसह के समय पर्व में था, तो बहुतों ने उन चिन्हों को जो वह दिखाता था देखकर उसके नाम पर विश्वास किया। परन्तु यीशु ने अपने आप को उनके भरोसे पर नहीं छोड़ा, क्योंकि वह सब को जानता था, और उसे आवश्यकता न था, कि मनष्य के विषय में कोई गवाही दे, क्योंकि वह आप ही जानता था, कि मनुष्य के मन में क्या है?- यूहन्ना 2:23-25
हम दूसरों पर कितनी गहराई से भरोसा कर सकते हैं? हम स्वयं को कितना अधिक दूसरों के लिए देते हैं, और हम उनके प्रति कितने असुरक्षित हैं? मैं अनुमान लगाती हूँ कि इन प्रश्नों के उत्तर परिस्थितियों के अनुसार भिन्न होगा। परन्तु इन प्रश्नों पर विचार करना निश्चित ही हमारे सोच के लिये भोजन है।
हम में से वे लोग जो बहुत अधिक भरोसा करने के कारण चोट खाए हुए हैं, ऐसी कुछ परिस्थिति पड़ने पर पीछे हट जाते हैं। एक समय मैं महिलाओं के एक समूह में शामिल थी, जिसे मैं बहुत प्यार करती थी, परन्तु क्रमशः मैंने जाना कि हमारा संबन्ध न उनके लिये न ही मेरे लिये स्वस्थ था। मैं बहुत अधिक उन पर निर्भर हो गई थी, यहाँ तक कि जो भरोसा मुझे परमेश्वर पर रखना था मैं उन पर रखी हुई थी।
हम सब जानते हैं कि हमारा अन्तिम भरोसा प्रभु पर होना चाहिए। परन्तु कभी-कभी हम ऐसे व्यक्तियों या समूहों से मिलते हैं जो हमारे लिये बहुत महत्व रखते हैं कि हम अपना बहुत कुछ दे देते हैं या हम उन्हें अपने जीवन पर अधिकार दे देते हैं, जो केवल प्रभु का होता है। जब ऐसा होता है, तो हमारा जीवन असंतुलित हो जाता है। और जब हम असंतुलित हो जाते हैं तो हम शैतान के लिये एक द्वार खोलते हैं।
यूहन्ना के सुसमाचार के शब्द हमारे लिये उचित चेतावनी का कार्य करते हैं। वह अपने प्रिय शिष्यों के साथ यीशु के संबन्ध के बारे में बात कर रहा था। यीशु जानता था कि कितना अधिक और कितना कम उसे उन लोगो पर भरोसा करना चाहिए जो उसके अधिक निकट हैं। यीशु मानवीय स्वभाव को समझता था – हम सबसे भी बढ़कर।
यीशु जानता था कि हमें भी दूसरों पर भरोसा करने की परख होनी चाहिये। इसलिये उसने अपना पवित्र आत्मा भेजा, ताकि हम जाने कि किस पर भरोसा किया जा सकता है। 1 कुरिंन्थियों 12:10 में, प्रेरित पौलुस आत्मा के वरदान के रूप में आत्माओं की परख को रखता है और पद 31 में, वरदान की उत्तम से उत्तम वरदान की धुन में लगे रहने के लिये कहता है। इस उत्तम वरदान में से एक आत्माओं की परख है और यह हमें भले और बुरे में भेद करने के लिये सहायता करती है, केवल बुरे में ही नहीं।
सच्ची आत्मिक परख समस्या की पहचान होते समय प्रार्थना करने के लिये हमें ऊकसाती है। एक उचित समस्या का एक उचित वरदान परमेश्वर पर संपूर्ण भरोसा करें के द्वारा पहचाना जाना आत्मिक योजना के द्वारा उसके साथ व्यवहार किए जाने तक पहुँचाता है। केवल शारीरिक मार्गों के द्वारा नहीं जो केवल समस्या को बड़ा करता है। जब हम परमेश्वर के निकट चलते हैं और उसकी अगुवाई माँगते हैं तो आत्मा उसका प्रबन्ध करता है।
जैसा मैंने पूर्व में वर्णन किया, ऐसा लगता है मानो कुछ लोगों के पास सन्देह करने का वरदान हो। और यह एक ऐसे मन से आता है जो नया नहीं हुआ है। दूसरी तरफ नया हो चुके आत्मा का फल है।
प्रेरितों के काम की पुस्तक परख और भरोसा जैसे मुद्दे पर अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करता है। धर्मशास्त्र हनन्याह और सफिरा नाम एक दंपति का वर्णन करता है, जो यरूशलेम की प्रथम कलीसिया के सदस्य थे। उन दिनों में विश्वासीगण अपनी संपत्ति को बेचकर एक दूसरे के साथ बांटा करते थे। इस दंपत्ति ने कुछ भूमि को बेचा और धन के कुछ हिस्सों को अपने पास रखा और बाकि पतरस के पास लाया। यह सही था क्योंकि यह उनका धन था। परन्तु केवल धन का कुछ हिस्सा देना और पतरस को यह विश्वास करने की ओर ले जाना कि उन्हें अपना संपत्ति बेचने से इतना ही धन मिला है, यह सही नहीं था।
परन्तु पतरस ने कहा; ‘‘हे हनन्याह! शैतान ने तेरे मन में यह बात क्यों डाली है कि तू पवित्र आत्मा से झूठ बोले, और भूमि के दाम में से कुछ रख छोड़े? (प्रेरितो 5:3)। पतरस ने इस बात की ओर संकेत किया कि यह उनकी भूमि थी और यह उनका संपत्ति था। उनका पाप उस धन का कुछ हिस्सा ही देना और यह दावा करना था कि इतने में ही उन्होंने भूमि को बेचा है। ‘‘तू मनुष्यों से नहीं, परन्तु परमेश्वर से झूठ बोला।’’ (पद 4ब)।
इस धोखे के कारण पति और पत्नी दोनों मर गए। यह कहानी जितनी भयानक है, यह कहानी हमें बताती है कि पवित्र आत्मा हमारे हृदय को जानता है। और यह हमें दर्शाती है कि आत्मा हमारे हृदय को पतरस जैसे विश्वासयोग्य और समर्पित सेवकों को परख के द्वारा दिख सकता है।
परमेश्वर चाहता है कि हम दूसरों से प्रेम करें और भरोसा करें। परन्तु हमारी अगुवाई के लिये हमें परख की आवश्यकता है। एक सीमा होनी चाहिये जहाँ पर हमारा भरोसा और समर्पण अवश्य ही केवल प्रभु के लिये ही सुरक्षित होना चाहिये। जब हम यह भरोसा दूसरों को देते हैं तो न केवल हम निराश होंगे, क्योंकि कोई भी मनुष्य हमारे अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सकता है। परन्तु हम परमेश्वर को निराश करते हैं।
इसलिये ऐसी गलती न करें। दूसरों पर भरोसा करने में और प्रेम करने में परख का इस्तेमाल करना बुद्धिमानी है। परन्तु आप कभी भी परमेश्वर पर संपूर्ण प्रेम करने और भरोसा करने से निराश नहीं होगे।
__________
प्रभु मैं तुझ पर भरोसा रखती हूँ। परन्तु मैं तुझ पर और अधिक भरोसा रखना चाहती हूँ। जब मैं दूसरों पर भरोसा रखने में परीक्षा में पड़ती हूँ, जिसका केवल तू ही अधिकारी है। कृपया मेरी सहायता कर कि मैं तेरे प्रति सच्चा बना रहूँ। यीशु मसीह के द्वारा मेरी सहायता कर कि मैं तेरे पवित्र आत्मा के अगुवाई के प्रति संवेदनशील हो सकूँ। आमीन।