प्रार्थना का जीवन जीना

प्रार्थना का जीवन जीना

निरंतर प्रार्थना (लगातार प्रार्थना में  बने रहना) में लगे रहो।  -1 थिस्सलुनीकियों 5:17

मैंने आपको अभी बताना प्रारंभ ही नहीं किया है कि किसी भी दिए गए दिन में मैं कितनी प्रार्थना करती हूँ। मैं वास्वत में नहीं जानती हूँ। मैं परमेश्वर से दिनभर बातें करती हूँ। जब मैं कंघी करती हूँ तब भी बातें करती हूँ। रात्रि के मध्य में मैं उससे बातें करती हूँ। मैं सब कुछ के बारे में उससे बातें करती हूँ। मैं उससे छोटी बातों के विषय में बातें करती हूँ। मैं उससे बड़ी बातों के विषय में बातें करती हूँ। और उससे बातें करना मेरे जीवन में हमेशा आनंद लाता है।

मैं लोगों के जीवनों में विभिन्न समस्याओं और परिस्थितियों के विषय में सुना करती थी और निर्णय लेती थी कि मैं उनके लिए प्रार्थना करना याद रखूँगी। थोड़े समय में मेरे पास विषयों का ऐसा गुच्छा आ जाता था कि जिनके के लिए मुझे प्रार्थना करने की ज़रूरत थी। अब जब मैं सुनती हूँ कि किसी की कोई ज़रूरत है मैं रूक जाती और वहीं पर प्रार्थना करती हूँ। प्रार्थना को साँस लेने के समान होने की ज़रूरत है-हमारे जीवन के एक स्वाभाविक भाग के समान। हमें परमेश्वर के साथ निरन्तर संगति में होना चाहिए कि वह उस मार्ग में हमारी अगुवाई कर सके जिसमें हमें चलना चाहिए। पौलुस का यही तात्पर्य था जब उसने लिखा, “निरन्तर प्रार्थना करो।” (1 थिस्सलुनीकियों 5:17 देखिए) इसका यह तात्पर्य नहीं कि हमें एक कोने पर जाकर बैठ जाना है और किसी निश्चित रीति पर ध्यान केन्द्रित करके प्रार्थना के कार्यक्रम को दिनभर चलाना है। इसका सामान्य तात्पर्य यह है कि हम एक प्रार्थनामय जीवन व्यतीत करें।

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