जब वह यरूशलेम में फसह के समय पर्व में था, तो बहुतों ने उन चिन्हों को जो वह दिखाता था देखकर उसके नाम पर विश्वास किया। परन्तु यीशु ने अपने आप को उनके भरोसे पर नहीं छोड़ा, क्योंकि वह सब को जानता था; और उसे आवश्यकता न थी कि मनुष्य के विषय में कोई गवाही दे, क्योंकि वह आप ही जानता था कि मनुष्य के मन में क्या है? – यूहन्ना 2:23-25
यीशु ने लोगों से प्रेम किया, विशेषकर अपने शिष्यों से। उनके साथ उसकी महान संगति थी। उसने उनके साथ यात्राएँ की, उनके साथ भोजन किया, उन्हें सिखाया। परन्तु उसने उन पर अपना भरोसा नहीं रखा। वह जानता था कि मनुष्य के मन में क्या है। हमें भी इसी तरह होना चाहिए। हमें लोगों से प्यार करना चाहिए परन्तु परमेश्वर पर भरोसा करना है। मैं अपने पति से प्यार करती हैूं हमारा आपसी संबंध अद्भुत है। मैं नहीं सोचती कि डेव मेयर से अच्छा व्यक्ति मुझे मिल सकता था। वह मेरे प्रति भले हैं। वह मेरा आदर करते हैं। वह मुझसे वैसा व्यवहार करते हैं जैसा एक पति को पत्नी से करना चाहिए। परन्तु मनुष्य होने के नाते वे ऐसा कुछ कर या कह जाते हैं जो मुझे चोट पहुँचाती है, जैसा मैं कभी कभी कुछ ऐसा करती या कहती हूँ जो उन्हें चोट पहुँचाती है।
अच्छे मानव के संबंधो में भी ऐसा क्यों होता है? ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हम सिद्ध नहीं हैं। केवल परमेश्वर ही हो सकता है जो हमें निराश न करे, चोट न पहुँचाए, हमारे साथ गलत न करे। जितना अधिक हम दूसरों को प्यार, आदर, प्रसन्न कर सकते हैं – विशेषकर हमारा जीवन साथी या हमारे परिवार के सदस्य – हमें अपना भरोसा शरीर की कमज़ोर बाँहों में नहीं परमेश्वर की मज़बूत बाँहों में देना चाहिए।