
जब अमस्याह राज्य करने लगा तब वह पच्चीस वर्ष का था, और यरूशलेम में उनतीस वर्ष तक राज्य करता रहा;… उस ने वह किया जो यहोवा की दृष्टि में ठीक है, परन्तु खरे मन से न किया। -2 इतिहास 25:1-2
जब परमेश्वर हमारे हृदय के लिए माँगता है वह हमारे संपूर्ण जीवन की माँग कर रहा है, जिसमें हमारा व्यक्तित्व, चरित्र, देह, मन, और भावनाएँ शामिल हैं। हृदय सच्चा व्यक्ति है वह व्यक्ति नहीं जिसे लोग देखते हैं। कलीसिया और संसार में किसी ऐसे व्यक्ति को ढूँढ़ता है जो वास्तविक हों। 2 इतिहास 25:1-2 में, हम एक ऐसे राजा के बारे में पढ़ते हैं जिसका हृदय नकारात्मक स्थिति में था। इस भाग में राजा अमस्याह ने सभी सही कार्य किए, परन्तु उसका हृदय सही नहीं था। इसीलिए परमेश्वर उसके साथ प्रसन्न नहीं था।
यह एक डरावनी बात है। हम सही कार्य कर सकते हैं और फिर भी परमेश्वर के लिए स्वीकारयोग्य नहीं होंगे, क्योंकि हम उसे गलत हृदय के साथ करते हैं। उदाहरण के लिए देह के विषय में सोचिए, 2 कुरून्थियों 9:7 पद में हम से कहा गया है कि परमेश्वर हर्ष से देनेवाले से प्रेम करता है। ऐसा व्यक्ति जो दबाव से या एक बुरे स्वभाव से नहीं देता है, परन्तु एक इच्छुक हृदय से देता है। वास्तव में यह कहता है परमेश्वर हर्ष से देनेवालो से इतना अधिक प्रेम करता है कि वह सचमुच में उसके बिना कुछ भी करने के लिए अनिच्छुक है। वह हमारे उपहारों को ले लेता है चाहे हम अनिच्छुक और कन्जुस हों। हमारे धन को ले सकता है और वह उसे अपने राज्य के लिए इस्तेमाल कर सकता है। परन्तु यह हृदय का वह व्यवहार नहीं है जो वह चाहता है कि हम रखें जब हम देते हैं। एक भौतिक हृदय और एक आत्मिक हृदय होता है और ये दोनों समानान्तर होते है।
भौतिक रूप से कहें तो हृदय सबसे महत्वपूर्ण शारीरिक अंग है। आत्मिक रूप से कहें तो मैं विश्वास करती हूँ कि हृदय आत्मिक देह का सबसे महत्वपूर्ण पहलु है। और यह सबसे महत्वपूर्ण भाग है जो एक विश्वासी या अगुवा परमेश्वर को दे सकता है। इसलिए हमारे हृदय की स्थिति इतनी महत्वपूर्ण है। यह योग्यता या सामर्थ्य की कमी नहीं है जो अधिकांश लोगों को उन्नति पाने से और जीवन में परिपूर्णता का आनंद उठाने से रोकती हैं। मैं विश्वास करती हूँ कि यह हृदय का गलत व्यवहार है।