अब मैं। क्या मनुष्यों को मनाता हूँ या परमेश्वर को? क्या मैं मनुष्यों को प्रसन्न करना चाहता हूँ? यदि मैं अब तक मुनष्यों को ही प्रसन्न करता रहता तो मसीह का दास न होता। – गलातियों 1:10
जो चीज़ें हम करते हैं उसके पीछे हमारा लक्ष्य बहुत महत्वपूर्ण है। परमेश्वर चाहता है कि हम शुद्ध हृदय रखें। वह चाहता है कि जो हम करते हैं वह हम करें क्योंकि हम विश्वास करते हैं कि वह हमें यह करने के लिए अगुवाई दे रहा है क्योंकि यह करने के लिए सही कार्य है। परमेश्वर चाहता है कि हम प्रेम के द्वारा प्रेरित हों। जो हम करते हैं वह परमेश्वर और मनुष्य के कारण करें। यदि हम भय से प्रेरित होते हैं तो यह परमेश्वर को प्रसन्न नहीं करता।
परमेश्वर हमें अपने वचन में निर्देश देता है कि मनुष्य को दिखाने के लिए भले काम न करे। पहचाने जाने और आदर पाने के लिए हमें भले काम नहीं करना है। जब हम प्रार्थना करते हैं तो हमें इसे मनुष्यों को दिखाने के लिए नहीं करना है या परमेश्वर को प्रभावित करने के लिए अपने वाक्यों को बढ़ा चढ़ाकर और बार बार दोहराकर अभिव्यक्त नहीं करना है। परमेश्वर हमारी प्रार्थना की लम्बाई या रोचकता से प्रभावित नहीं होता है वह गंभीरता और प्रबलता की खोज करता है। हमारे प्रत्येक कार्य जो अशुद्ध हैं न्याय के दिन जला दिए जाएँगे। हम अपने किसी भी काम के लिए प्रतिफल को खो देंगे जो हम ने अशुद्ध लक्ष्य के साथ किए हैं (मत्ती 6:1-7 देखिए और 1 कुरिन्थियों 3:13-15 देखिए)।
हमें लगातार कुछ समय निकालना है और स्वयं से पूछना है कि हम जो कार्य करते हैं वह क्यों कर रहे हैं? यह कुछ ऐसा कार्य नहीं है जो हम करते हैं कि परमेश्वर को प्रसन्न करें। यह “क्यों” का सवाल है कि हम जो करते हैं वह उसके साथ संबन्धित है या नहीं?