तब पतरस ने कहा, “अब मुझे निश्चय हुआ कि परमेश्वर किसी का पक्षपात नहीं करता।” -प्रेरितों 10:34
यदि प्रेम निःशर्त है तो इसे स्वार्थ से पक्षपात नहीं करना चाहिए। मैं एक घटना को याद करती हूँ जब परमेश्वर ने इस क्षेत्र में मुझे एक सबक सिखाया। मैं अपने पुत्र को चिकित्सक के पास ले गई थी कि उसके हाथ से एक काँच को निकाल दें जो उसने तोड़ दिया था। जब मैं इंतज़ार कर रही थी एक बुजुर्ग व्यक्ति आया और मेरे बगल में बैठ गया। वह मुझ से बात करना चाहते थे परन्तु मैं पढ़ना चाहती थी। वह मुझे बताते रहे कि कैसे वे बर्फ़ पर गिर गए और उनका पैर टूट गया और इस डॉक्टर ने कैसे उनकी सहायता की थी।
मुझे अवश्य अंगीकार करना चाहिए कि मैं वास्तव में चाहती थी कि वे चुप रहें। मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया न ही उनके प्रति कोई आदर दिखाया। मैं कुछ कुछ इस बात के प्रति जागृत थी कि वे एकाकी व्यक्ति थे और संभवतः उनके साथ बात करने के लिए कुछ ही लोग थे। परन्तु मैं उस दिन के लिए उनका आशीष बनने की इच्छुक नहीं थी।
पवित्र आत्मा ने मेरे हृदय में मुझ से कहा, “तुम इस व्यक्ति से कैसे व्यवहार करती यदि वह प्रसिद्ध प्रचारक होते जिनके बारे में तुम जानना चाहती थी?” उन शब्दों से मुझे बड़ा धक्का सा लगा, मैंने तुरन्त जाना कि मुझे उनके प्रत्येक शब्दों, मुस्कुराहटों और टिप्पणियों को ध्यान से सुनना है और मुझे एक संबंध बनाने में सहायता करनेवाली सभी बातों को करना है-सारांश में वे सभी बातें जो मैं इस व्यक्ति के लिए नहीं कर रही थी जो मेरे लिए कुछ भी नहीं थे।
इस प्रकार का व्यवहार किसी के लिए भी स्वीकारयोग्य नहीं है जो एक सामर्थी प्रेम चाहते हैं। परमेश्वर का वचन हमसे कहता है कि वह पक्षपात नहीं करता कि वह लोगों का आदर नहीं चाहता। ईमानदारी से कहूँ तो पक्षपाती नहीं होने के लिए आत्म जाँच की ज़रूरत है। देह में कुछ पूर्वधारणा करने की और पक्षपात करने का स्वभाव होता है, परन्तु परमेश्वर ऐसी बातों को दोषी ठहराता है। इसलिए हमें भी उन्हें दोषी ठहराना है।