व्यवस्था बीच में आ गई कि (केवल) अपराध (इसे अधिक प्रगट और उत्तेजक विरोध) बहुत हो, परन्तु जहाँ पाप बहुत हुआ वहाँ अनुग्रह (परमेश्वर की कृपा जिसके हम योग्य नहीं हैं) उससे भी कहीं अधिक हुआ। -रोमियों 5:20
परमेश्वर की व्यवस्था का उद्देश्य मनुष्य के पतित दशा में आनेवाली दुष्टता करने की स्वाभाविक इच्छाओं से रोकना है। परन्तु व्यवस्था अपने आप में अप्रभावशाली है क्योंकि यह मानवजाति के व्यवहार को बदलता नहीं है। दूसरे शब्दों में व्यवस्था के पास सामथ्र्य नहीं है कि लोगों को उसके प्रति आज्ञाकारी बनाए। उदाहरण के लिए, मान लीजिए आपको अधिक चॉकलेट खाने की आदत है, आप इस आदत से छुटकारा चाहते हैं, इसलिए आप अपने आप के लिए एक नियम बनाते हैं। “मुझे चॉकलेट नहीं खानी चाहिए, मैं चॉकलेट नहीं खा सकती हूँ, मैं फिर कभी चॉकलेट नहीं खाऊँगा।” आप अपने आपको कायल करते हैं कि आपके लिए एक चॉकलेट खाना पाप है। स्वयं बनाया हुआ यह नियम आपको चॉकलेट खाने की इच्छा से स्वतन्त्र नहीं करता है, वास्वत में यह ऐसा लगता है कि यह आपकी समस्या को बढ़ाता है!
अब आप हर समय चॉकलेट के बारे में सोचते है। और आप हर समय चॉकलेट चाहते हैं। आप सुबह से शाम तक अपने मन में चॉकलेट को रखते हैं। क्रमशः आप अपने आपको चॉकलेट के चारो तरफ घूमते हुए पाते हैं क्योंकि आपने हर किसी को कह रखा है कि आप और “कभी” चॉकलेट नहीं खाएँगे। आप लोगों के सामने चॉकलेट नहीं खा सकते। इसलिए जब आप चॉकलेट खाते हैं तो छुपते हैं। अब आप अपराधी महसूस करते हैं क्योंकि आप एक “छुपे” हुए पापी बन गए हैं।
यदि आप जानते हैं कि मैं किस विषय में बात कर रही हूँ तो आप इस दर्द को जानते हैं जो “नियम के अधिन” जो मसीह में स्वतन्त्र होने के बजाए नियम के अधिन होने से होता है। नए विश्वासी जो अपने विश्वास में अपरिपक्व न हों और परमेश्वर के वचन के ज्ञान में कमज़ोर हों अक्सर परमेश्वर की व्यवस्था पर ध्यान करते हैं, ताकि अपनी इच्छाओं पर नियन्त्रण कर सके। परन्तु यदि वे परिपक्व होते हैं और पवित्र आत्मा के नेतृत्व के निर्देश में चलने के लिए सीखते हैं वह उन्हें पाप करने की इच्छा से मुक्त कर देता है।