
अतः हे भाइयों, आनंदित रहो; सिद्ध बनते जाओ; ढाढ़स रखो; एक ही मन रखो; मेल से रहो। और प्रेम और (तब) शांति का दाता परमेश्वर (जो मनुष्यों के
प्रति स्नेह, सद्भाव, प्रेम, परोपकारिता का श्रोत है) तुम्हारे साथ होगा।-2 कुरिन्थियों 13:11
जब यीशु ने प्रचार करने और चंगा करने के लिए शिष्यों को दो दो करके भेजा, उसने उनसे हर एक शहर में जाने, और रहने के लिए एक उचित घर ढूँढ़ने और लोगों से “तुम्हें शांति मिले” कहने के लिए कहा। उसने कहना जारी रखा कि यदि वे स्वीकार किए जाते हैं, तो उन्हें वहाँ ठहरना और सेवा करना चाहिए, परन्तु यदि वे स्वीकार नहीं किए जाते तो वे वह स्थान छोड़ना और उस स्थान की धूलि को वहीं पैरों से झाड़ दें। (मत्ती 10:11-15 देखिए)।
मैं यह सोचकर घबरा जाती हूँ कि यीशु ने ऐसा क्यों कहा। तब प्रभु ने मुझ पर प्रगट किया कि यदि शिष्य किसी ऐसे घर या शहर में रूक जाते जहाँ पर वे स्वीकार नहीं किए जा रहे हैं, तो वे कोई वास्तविक कार्य नहीं कर सकते। क्या आप जानते हैं क्यों? क्योंकि विरोध पवित्र आत्मा को दुःखी करता है। जब शांति चली जाती है तो पवित्र आत्मा चली जाती है। और वही है जो वास्तविक कार्य करता है।
जब आप यीशु की कल्पना करते हैं जो दूसरों की सेवा करते हुए जाता था, तो आप उसे किस प्रकार से देखते हैं? निश्चय ही आप जल्दबाज़ी में नहीं देखते हैं जैसा अक्सर हमारा स्वभाव होता है। क्या आप इसके बजाए एक शांत और चित्त मन के साथ सेवा करनेवाली उसकी तस्वीर नहीं पाते हैं? यही एक स्वभाव है जो मुझे और आपको विकसित करना है। मसीह के राजदूत के रूप में हमें अपने स्वामी के समान अधिक होना चाहिए। यदि हम अपने प्रभु और उद्धारकर्ता के लिए कुछ भी करना चाहते हैं तो हमें शांती के लिए भूख और प्यास को सीखने की ज़रूरत है।