
यदि तू अपने मुँह से यीशु को प्रभु जानकर अंगीकार करे, और अपने मन से विश्वास करे कि परमेश्वर ने उसे मरे हुओं में से जिलाया, तो तू निश्चय उद्धार पाएगा। क्योंकि धार्मिकता (धर्मी ठहरना, परमेश्वर को ग्रहण योग्य होना) के लिए मन से विश्वास (भरोसा करना, मसीह पर आसरा रखना) किया जाता है, और उद्धार के लिए मुँह से अंगीकार (अपने विश्वास का खुले रूप से मुँह से घोषणा करना) किया जाता है। -रोमियों 10:9-10
यह बहुत ही महत्वपूर्ण सिद्धान्त है जिससे हम चुक जाने के खतरे में हैं। हम विश्वास के द्वारा बचाए गए हैं परन्तु याकूब ने कहा कि कार्य के बिना विश्वास मरा हुआ है। मैं अपने हृदय में विश्वास करती हूँ कि परमेश्वर आराधना के योग्य है परन्तु मैं उसकी आराधना करने का कार्य नहीं करती हूँ तो इससे अधिक भला नहीं होता है। मैं कह सकती हूँ कि मैं दशमांस देने में विश्वास करती हूँ परन्तु यदि मैं दशमांश नहीं देती हूँ तो यह आर्थिक रूप से यह मेरी कोई सहायता नहीं करता है। सामर्थी बनो-और अपनी स्तुति और आराधना में कुछ अभिव्यक्ति लाओ और कार्य करो। बहुत सारे लोग परमेश्वर के बारे में बात करना भी इंकार कर देते हैं। वे कहते हैं “धर्म एक नीजि बात है।” मैं बाइबल में किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं पाती हूँ जो यीशु से मिला हो इस बात को निजि तक रखा हो। जब हम उसकी आराधना और स्तुति करने के विषय में उत्तेजित होते हैं तो बाहरी प्रगटीकरण न होना बहुत कठिन होता है। जब वह हमारे हृदय को भरता है तो उसके विषय में सुसमाचार हमारे मुँह से बाहर आता है।